नैनीताल, उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने तृतीय श्रेणी के पदों पर स्थानीय उम्मीदवारों को प्राथमिकता देने संबंधी राज्य सरकार के कदम को गैर कानूनी घोषित कर दिया है। इससे उत्तराखंड में सरकारी नौकरी का सपना देख रहे हजारों युवाओं को झटका लग सकता है। इसके साथ ही अब सरकारी नौकरी के लिये सेवायोजन कार्यालयों में पंजीकरण कराना भी जरूरी नहीं होगा।
उच्च न्यायालय ने इस प्रावधान को भी अवैध घोषित कर दिया है। न्यायालय के इस कदम से सरकार की परेशानी बढ़ सकती है। मुख्य न्यायाधीश रमेश रंगनाथन की अगुवाई वाली युगलपीठ ने यह निर्णय सुनाया। अदालत ने कहा कि सरकारी नौकरी में स्थानीयता के आधार पर प्राथमिकता देना असंवैधानिक है। अदालत ने राज्य सरकार के इस संबंध में जारी शासनादेश को भी गलत ठहरा दिया है।अदालत ने कहा कि सरकार द्वारा 10 फरवरी 2014 को जारी किया गया शासनादेश गैर कानूनी है। न्यायालय ने इसे संविधान की धारा 16(2) का उल्लंघन माना है।
युगलपीठ ने इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के कई निर्णयों का हवाला दिया है। प्रदीप जैन बनाम केन्द्र सरकार मामले का उल्लेख करते हुए अदालत ने संविधान में निहित एक देश, एक नागरिकता का हवाला देते हुए कहा कि हमारे संविधान में व्यवस्था है कि भारत का कोई भी नागरिक देश के किसी भी कोने व राज्य में निवास कर सकता है। चाहे वह कोई भी भाषा-भाषी हो या फिर किसी भी धर्म से संबध रखता हो। अदालत ने इस मामले में कैलाश चंद्र शर्मा बनाम राजस्थान सरकार और तेलंगाना जज एसोसिएशन व अन्य बनाम केन्द्र सरकार व अन्य मामलों का भी हवाला दिया।
उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में साफ-साफ कहा है कि संसद में कानून बनाये बिना कोई राज्य सरकार ऐसे कदम कैसे उठा सकती है? अदालत ने आगे कहा कि संसद ने उत्तराखंड राज्य को लेकर इस प्रकार का कोई कानून नहीं बनाया है। इसलिये राज्य सरकार द्वारा 14 फरवरी, 2014 को जारी किया गया शासनादेश गैर कानूनी व अवैध है। इसी के साथ ही अदालत ने सरकारी नौकरी के लिये सेवायोजन कार्यालयों में पंजीकरण की अनिवार्यता को भी गलत ठहराया है। अदालत ने इस मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय के कई आदेशों का हवाला दिया है।
युगलपीठ ने सरकार को झटका देने वाला यह महत्वपूर्ण आदेश राज्य सरकार की विशेष याचिका की सुनवाई के बाद जारी किया है। दरअसल उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग ने प्रदेश के चिकित्सा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग में एक्सरे तकनीकीशियन के 45 पदों को भरने के लिये 15 अप्रैल 2016 को एक विज्ञप्ति जारी की थी। प्रशांत कुमार व अन्य ने याचिका दायर कर कहा कि उन्होंने भी इन पदोंं के लिये आनलाइन आवेदन किया।
याचिकाकर्ताओं की ओर से आगे कहा गया कि आयोग की ओर से उनके आवेदन को इसलिये अस्वीकार कर दिया गया क्योंकि उनका प्रदेश के किसी भी सेवायोजन कार्यालय में पंजीकरण मौजूद नहीं था। इसी दौरान आयोग ने लिखित परीक्षा के बाद परिणाम घोषित कर दिया।
आयोग के इस फैसले को याचिकाकर्ताओं की ओर से एकलपीठ में चुनौती दी गयी। एकलपीठ की ओर से सेवायोजन कार्यालय में पंजीकरण कराने के कदम को गलत ठहराया गया। 20 जुलाई 2018 को दिये गये आदेश में एकलपीठ ने याचिकाकर्ताओं के आवेदन पर विचार करने के भी निर्देश सरकार को दिये।
एकलपीठ के इस आदेश से सकते में आयी प्रदेश सरकार की ओर से मामले को विशेष याचिका (एसएलपी) के माध्यम से चुनौती दी गयी। मुख्य न्यायाधीश रमेश रंगनाथन व रमेश चंद्र खुल्बे की युगलपीठ ने विशेष याचिका पर सुनवाई की। इसी दौरान आयोग व सरकार की ओर से तर्क दिया गया कि तृतीय श्रेणी के पदों पर स्थानीय उम्मीदवारों को प्राथमिकता देने के लिये सेवायोजन कार्यालय में पंजीकरण संबधी प्रावधान किया गया है।