भारत और अमेरिका दोनों देशों का इतिहास कई मामलों में एक जैसा ही रहा है. दोनों देशों ने औपनिवेशिक सरकारों के खिलाफ संघर्ष कर स्वतंत्रता प्राप्त की. अमेरिका 1776 में आजाद हुआ तो भारत 1947 में. स्वतंत्र देशों के रूप में दोनों ने लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाया लेकिन आर्थिक और वैश्विक संबंधों के क्षेत्र में भारत तथा अमेरिका के दृष्टिकोण में असमानता के कारण दोनों देशों के संबंधों में लंबे समय तक कोई प्रगति नहीं हुई. अमेरिका पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का समर्थक रहा है जबकि स्वतंत्रता के बाद भारत में समाजवादी अर्थव्यवस्था को महत्व दिया गया. इससे भी बड़ा कारण यह रहा कि शीत युद्ध के दौरान जहाँ अमेरिका ने पश्चिमी देशों का नेतृत्व किया वहीं भारत ने गुटनिरपेक्षता की विचारधारा का समर्थन किया. निक्सन, कार्टर से लेकर रीगन तक के दौर में अमेरिका ने भारत का आंकलन सोवियत कैम्प के देश के रूप में किया. इसमें कुछ फीसदी सच्चाई भी थी लेकिन तीन दशक पहले सोवियत संघ के विघटन व रूस द्वारा भी समाजवाद का रास्ता छोडक़र मिश्रित अर्थव्यवस्था अपनाने के बाद से गंगा व वोल्गा में काफी पानी बह चुका है. अमेरिका का नजरिया भारत के प्रति बदल चुका है और वह भारत को अपना मित्र व मजबूत आर्थिक सहयोगी मानता है.
मित्रता के इसी सकारात्मक माहौल के बीच दुनिया भर की निगाहें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अमेरिका यात्रा पर लगी हुई हैं. मोदी की यह अमेरिका यात्रा ऐसे वक्त हो रही है जब अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद समूचा दक्षिण एशिया नई चुनौतियों से जूझ रहा है. पाकिस्तान और चीन द्वारा तालिबान के प्रति निकटता जताने और रूस के तटस्थ जैसी भूमिका अपनाने के बाद भारत के समक्ष संकट बढ़ गया है. कहने को खुद अमेरिका तालिबान के भरोसे अफगानों को छोडक़र काबुल से पलायन करने के लिए मजबूर हुआ है लेकिन विश्व राजनीति पर अमेरिका के प्रभाव व शक्ति को कमतर नहीं आंका जा सकता है. जाहिर है कि आज रात राष्ट्रपति बाइडन से होने वाली मुलाकात में भारत के प्रधानमंत्री तालिबान से जुड़ी चिंताओं को उनके समक्ष रखेंगे. कतर में अमेरिका और तालिबान के बीच हुए करार में इस बात का साफ जिक्र है कि तालिबान अफगान भूमि का इस्तेमाल अल कायदा या अन्य किसी अतिवादी संगठन की गतिविधियों के लिए नहीं होने देगा. मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति से कह सकते हैं कि वह तालिबान पर दवाब बनाकर इस शर्त का कठोरता से पालन कराएं. हालांकि अफगान राजनीति में अब अमेरिका का सीधा दखल नहीं है लेकिन भारत का भरोसा बाइडन द्वारा कुछ हफ्ते पहले कही इस बात से कायम है कि अमेरिका अफगान से हटा जरूर है लेकिन ध्यान नहीं हटा है. मोदी बाइडन मुलाकात में पाकिस्तान का मसला भी चर्चा का अहम बिंदु रहेगा ही. भारत की चिंता इस तरह की अपुष्ट खबरें आने के बाद और ज्यादा बढ़ गईं हैं कि पंजशीर घाटी पर कब्जा कराने में तालिबानी लड़ाकों को दी मदद के एवज में पाक हुक्मरान कश्मीर घाटी में तालिबान से ऐसी ही मदद की अपेक्षा रखते हैं.
1990 के दशक में भारतीय आर्थिक नीति में बदलाव के परिणामस्वरूप भारत और अमेरिका के संबंधों में सुधार आया है. पिछले एक दशक में इस दिशा में अभूतपूर्व प्रगति हुई है. बाइडेन इसी साल जनवरी में अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे, तब से लेकर अब तक मोदी की उनसे तीन बार फोन पर बात हो चुकी है. मोदी उन प्रमुख नेताओं में शामिल थे, जिन्होंने बाइडेन को फोन कर जीत की बधाई दी थी. मोदी और बाइडेन कई समिट व बैठकों में भी साथ आए हैं. फिर चाहे क्वाड की वर्चुअल समिट हो या फिर जी20 की मीटिंग हो. मोदी की बाइडेन से तब भी मुलाकात हुई थी, जब वह उपराष्ट्रपति थे. कल रात कमला हैरिस से मुलाकात के बाद हो रही भारत-अमेरिका की इस द्विपक्षीय वार्ता में आतंकवाद के अलावा कोरोना संकट, वैक्सीनेशन, निवेश समझौतों जैसे मसलों पर मंथन होगा. अमेरिका लगातार चीन को काउंटर करने की कोशिश में है, रूस भी शीतयुद्ध के समय जैसी ताकत बढ़ाने में जुटा है. इस सूरतेहाल अमेरिका जानता है कि उसके लिए भारत का साथ कितना जरूरी है.